Monday, May 24, 2010

खुद सरकारों ने तोड़ा है सुरक्षा का ढांचा

अजय साहनी, आतंकवाद विरोधी सुरक्षा विशेषज्ञ
यह बड़े क्षोभ और शर्म की बात है कि हम लगातार तरह–तरह के आतंक की गिरफ्त में आते जा रहे हैं लेकिन इसके बावजूद सुरक्षा का कोई मुकम्मल तार्किक विमर्श नहीं बन पा रहा है। इस काम में बौद्धिक बेईमानी और निहित स्वार्थ सबसे बड़ी बाधा बन रहे हैं। आतंक के मुद्दों पर हर किसी के पास अपनी व्याख्या है। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो इन मुद्दों का गहराई से अध्ययन कर तथ्यों और ऐतिहासिक रिकार्ड के आधार पर उनका विश्लेषण करना चाहते हों। इसीलिए हमें ‘विकास’, ‘राजनीतिक समाधान’ और ‘दिल व दिमाग से जीतने’ जैसे सबको पसंद में आने वाले शब्दजालों का सामना करना पड़ता है। क्या किया जाये, क्या किया जा सकता है और इनको करने में कितने संसाधनों की जरूरत है ..... इन सबको समझने की फुर्सत किसी को नहीं है। हद तो यह है कि बहुतेरे मामलों में राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों ने चरमपंथियों व देशद्रोही तत्वों के साथ सांठगांठ तक कर ली है। अपने भौगोलिक क्षेत्रों पर पूर्ण दबदबा और सभी नागरिकों के जीवन व संपति की रक्षा आंतरिक सुरक्षा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। न्याय का प्रावधान और कानून की व्यवस्था दूसरा अनिवार्य तत्व है। इनकी अनुपस्थिति में आंतरिक सुरक्षा बराबर ही छलावा बनी रहती है और दुस्साहसी या हथियारबंद समूह इस छलावे का इस्तेमाल करते रहते हैं। आंतरिक सुरक्षा के बुनियादी तत्वों की हिफाजत के लिए जरूरी है कि हम एक पेशेवर माहौल में अपनी इंटेलिजेंस और पुलिस की क्षमताएं बढा़ते जाएं। अफसोस की बात है कि पिछले कई दशकों में सत्ता पर काबिज होने वाली सरकारों ने सुनियोजित ढंग से देश की आंतरिक सुरक्षा के ढांचे को क्षत–विक्षत करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। आंतरिक सुरक्षा, विकास और सुशासन एक सोच है कि संसाधनों का न्यायसंगत समान वितरण, सुशासन और राजनीतिक लोकतंत्र के डिलीवरी की गारंटी ही मजबूत आंतरिक सुरक्षा के मूलाधार होते हैं। आदर्श स्थिति में यह सोच पूरी तरह सही है, लेकिन हमारे देश की जो जमीनी हकीकत है वह ऐसे किसी समाधान को अर्थहीन बना देती हैं। समता, सुशासन और लोकतंत्र के आदर्श तक हर किसी को पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। न्याय और कानून की व्यवस्था ऐसी जरूरतें हैं जो यूटोपिया नहीं हैं। इन्हें पूरा किया जा सकता है। यह दूसरी बात है कि राज्य और उसकी एजेंसियों के लगातार क्षरण की वजह से ये जरूरतें भी पूरी नहीं होतीं। हमें युद्ध स्तर पर इन कमजोरियों से लड़ना है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि हम विकास और सुशासन के अन्य संदर्भों की चिंता ही न करें। आतंकवाद या विद्रोह हो या नहीं, राज्य का तो फर्ज ही है कि वह विकास और सुशासन की गारंटी देने का प्रयास करे । मेरा सिर्फ यह कहना है कि आंतरिक सुरक्षा से जुड़े सवालों का समाधान विकास व सुशासन से जुड़े सवालों के समाधान का मोहताज नहीं है। राजनीतिक इच्छाशक्ति, रणनीति और क्षमता निर्माण आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में मुख्य समस्याएं केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति और एकीकृत रणनीति के अभाव की ही नहीं हैं। पर्याप्त क्षमताओं की कमी भी एक बड़ी समस्या है। एन.आई.ए. और प्रस्तावित एन.सी.टी.सी. जैसे ‘मेटास्ट्रक्चर्स’ (बड़े व्यापक ढांचे) पर गौर करिए ... ये ढांचे अन्य कार्यरत एजेंसियों की बेहद सीमित क्षमताओं को बढ़ाने के बजाय उन्हें हड़प रहे है। जमीनी स्तर पर पर्याप्त ‘ऑपरेशनल’ क्षमताओं के बगैर शीर्ष पर नये–नये ढांचों का निर्माण संसाधनों की बर्बादी ही है। निचले स्तरों पर भरपूर क्षमता विकास के बाद ही ‘मेटास्ट्रक्चर्स’ कारगर हो सकते हैं। अमेरिका की अफ–पाक नीति में भारत की भूमिका ‘प्रोअमेरिका–एंटीपाकिस्तान’ नीति को बदलने के बजाय ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम देश में मौजूद ‘एंटीअमेरिका व प्रोपाकिस्तान’ सोच को बदलें। हम पाकिस्तान के प्रति कुछ ज्यादा ही नरम और दिलफेंक रहे हैं। पाकिस्तान हमारी जमीन पर लगातार आतंकवादी कार्रवाईं और तोड़–फोड़ कराता रहा है, लेकिन हम अपनी क्षमताओं का तेज गति से विकास कर इस्लामाबाद पर उसके किए की कीमत चुकाने का दबाव नहीं बना पाये हैं। हमारे यहां की राजनीति इस कदर विकृत हो चुकी है कि हम आंतरिक सुरक्षा की जरूरतों को गहराई में नहीं समझ पा रहे हैं

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