Wednesday, May 12, 2010

आखिर कैसे निपटा जाए नक्सलियों सें.....?

प्रमोद रिसालिया
चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय, सिरसा

क्सलवाद ऐसे गुमराह करने वाले सवाल भी खड़े कर रहा हैं कि क्या अब सरकार अपने ही लोगों के खिलाफ हथियार उठाएगी? क्या दंतेवाड़ा में शहीद हुए जवान किसी और ग्रह के रहने वाले थे? क्या इन जवानों के पास कोई मानवाधिकार नहीं होते? जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने राष्ट्रद्रोह की सीमा लांघ रहे हैं उनके खिलाफ सख्ती अनिवार्य है। क्या निर्धनता-पिछड़ेपन का निदान उस तरह हो सकता है जैसे नक्सली लोग करने में लगे हुए हैं? लाल आंतक आज पूरे देश में अपने पैर पसार रहा है। नक्सल विरोधी अभियान लगातार असफल होते जा रहे है। नक्सल जैसी समस्या का तौड़ निकालने के बजाय बयानबाजी अधिक की जा रही है। देश को दहलाने वाली छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा की यह घटना नक्सल विरोधी अभियान की विफलता के प्रमाण के साथ-साथ यह भी बताती है कि नक्सलियों का दुस्साहस सातवें आसमान पर पहंुच चुका है। देश पर यह कोई पहला नक्सली हमला नहीं नक्सली यह काम न जाने कब से करते चले आ रहे हैं। जब सरकार को मालूम है कि नक्सली हिंसा छोड़ने को तैयार नहीं और ना वे कोई बातचीत करना चाहते फिर वार्ता का डींडोरा पीटने का क्या फायदा? केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलवाद और आतंकवाद, दोनों को एक जैसा बताते हुए यहां तक कह चुके हैं कि नक्सली देश के नम्बर एक शत्रु हैं, लेकिन यह जानना कठिन है कि उन कथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार समर्थकों के खिलाफ सख्ती क्यों नहीं बर्त जा रही जो लाल आंतक की खुली वकालत करने में लगे हुए हैं? केंद्र सरकार नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा तो बता रही है, लेकिन यह तय नहीं कर पा रही कि इस खतरे से कैसे निपटा जाए? कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि वह नक्सलियों के इरादों को भी नहीं समझ पा रही है। क्या नक्सली सिर्फ लूट-पात, हिंसा और लोगों की जान लेना चाहते है? ऐसा तो नहीं लगता।
आखिर क्या वजह है कि वे देश में अशांति फैलाते है। अगर उन परिस्थियों पर ही अमल कर लिया जाए जिससे नक्सलवादी उत्पन्न होते है तो देश में ऐसी कोई समस्या ही जन्म नहीं लेगी। कुछ दिनों पहले की बात है कि बिहार-क्षारखंड सीमा पर नक्सलियों ने जो सबसे अधिक सुरक्षित माने जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को बन्धक बनाया तो सरकार की आंखों से नींद ही उड़ गई। मानो ऐसा लग रहा हो जैसे सरकार ने कभी नींद ली ही न हो। दिमाग पर जोर डालिए और याद किजिए उस घटना को। क्या किया नक्सलियों ने और क्या नहीं? जाहिर सी बात है वहां नक्सलियों ने वहां खून-खराबा तो किया ही होगा। लूटपात तो मचाई ही होगी। जो आप सोच रहे है वैसा विल्कुल ही नही हुआ। नक्सलियों ने लोगों को बन्धक बनाया जरूर लेकिन किसी को किसी प्रकार का नुक्सान पहुंचाना मकसद नहीं था। मकसद था तो भर पेट खाना खाना। नक्सली तो सिर्फ रेलगाड़ी के रसोईघर से खाना लेकर भाग गए। वे चाहते तो कई लोगों की मौत बन सकते थे। वे चाहते तो पूरी ट्रेन को लूट सकते थे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इससे साफ पता चलता हैकि नक्सलियों के लिए दो वक्त की रोटी अहम है ना की दौलत। नक्सलियों का लक्ष्य लोगों को मारना नहीं वो तो सिर्फ सत्ता का ध्यान अपनी और खींचना चाहते है। यह भी एक पहेली बन कर रह गई है कि सरकार नक्सलियों को आदिवासियों काप्रतिनिधि क्यों घोषित कर रही है? आखिर केंद्र अथवा राज्य सरकारें सीधे आदिवासियों से बातचीत क्यों नहीं कर सकतीं? सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या अभी भी यह जानना बाकी है कि आदिवासी लोग किस तरह की समस्याओं से पीड़ित है और उनका समाधान कैसे हो सकता है? अब सरकार को सिर्फ इस समस्या के निजात पाने के बारे में सोचना चाहिए न कि बेतुकी बयानबाजी।

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