सोमवार की दोपहर बस्तर की धरती एक बार फिर निर्दोष व निहत्थे जनों के खून से लाल हुई। इनकी हत्याएं जिन्होंने की, वे अपने को नक्सलवादी अथवा माओवादी कहते हैं। किंतु ये नक्सलवादी नहीं हैं। ये माओवादी भी नहीं हैं। जहां वाद होगा वहां कोई विचार भी होगा, किंतु बस्तर में दिन प्रतिदिन जिस नृशंस तरीके से और बिना किसी जाहिर कारण के हत्याएं की जा रही हैं इसे किस विचार प्रतिक्रिया का हिस्सा माना जाए! जैसा कि हम समझ पा रहे हैं ये तथाकथित माओवादी किसी और की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये किन्हीं अदृश्य शक्तियों के लिए काम कर रहे भाड़े के सिपाही हैं। मैंने कुछ समय पहले लिखा था कि ये 1967 के नक्सली नहीं हैं और न वे 1948 के तेलंगाना के विद्रोहियों के उत्तराधिकारी हैं। आज ारूरत यह समझने की है कि हत्यारों की यह फौज किसके लिए काम कर रही है और इनका असली मकसद क्या है।
ये जितनी ज्यादा हिंसा फैलाएंगे, उतनी ही आम जनता के बीच असुरक्षा की भावना बढ़ेगी। उतना ही चुनी हुई सरकार और प्रशासन पर से विश्वास उठेगा। उतना ही बस्तर को पुलिस के बजाय सेना के हवाले करने का विचार जोर पकड़ेगा। ध्यान रहे कि ऐसी मांग उठी तो आदिवासी की भूमिका मूकदर्शक की ही होगी। आज भी वह कहां कुछ कह पा रहा है! वह तो अपने घर से बेदखल है और विचारों की दुनिया से विस्थापित। उसके हित-अहित के सारे निर्णय, बहुत दूर बैठकर लिए जा रहे हैं। अगर इस माहौल में कोई जनतांत्रिक विमर्श और शांति स्थापना की बात करता है तो उसके लिए जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। कुल मिलाकर ये कथित माओवादी ऐसा वातावरण बना देना चाहते हैं कि विवेक, संयम, सोच जैसे शब्द बेमानी हो जाएं। इससे किसका हित होगा, यह समझना कठिन लेकिन जरूरी है।
ध्यान दीजिए कि आज भारत की आबादी एक अरब से ज्यादा है। यद्यपि न्यायसंगत वितरण व आर्थिक असमानता का लक्ष्य अभी बहुत दूर है, फिर भी पहले के मुकाबले स्थितियां बेहतर दिखाई देती हैं। आजादी के समय 33 करोड़ आबादी थी। आज लगभग उतनी ही बड़ी संख्या उन भारतीयों की है जो विश्व बाजार में उपभोक्ता के रूप में गिने जा रहे हैं। एक तरफ इनके लिए मायाजाल बिछाया जा रहा है तो दूसरी तरफ विश्व में बढ़ते उपभोग के कारण तीसरी दुनिया के नैसर्गिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय घरानों की गिध्द दृष्टि लगी हुई है। यह मात्र संयोग नहीं है कि जिन इलाकों में नक्सलियों ने अपने पैर जमाए हैं, वहीं ये सारे संसाधन हैं।
इन दस-बीस सालों में नक्सलियों या माओवादियों ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, जिससे नैसर्गिक संसाधनों पर मूल निवासियों का प्रथम दावा पुख्ता हुआ हो। ऐसे में यही समझ आता है कि बस्तर हो या कोई अन्य अंचल, ये हत्यारे दस्ते राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय कॉरपोरेट घरानों के इशारों पर ही काम कर रहे हैं। कहना होगा कि देश के कुछ राजनैतिक दलों में भी ऐसे लोग हैं जो उनके ही इंगित पर चल रहे हैं। दूसरे शब्दों में बैलेट हो या बुलेट-सारा खेल परदे के पीछे से संचालित हो रहा है और सूत्रधार दिखाई नहीं देता। इसीलिए हिंसक दुर्घटनाओं की जितनी भी निंदा या भर्त्सना की जाए, उनको कोई फर्क नहीं पड़ता।
इस दुष्चक्र से बाहर निकलने का एक ही उपाय है कि केंद्र व प्रदेशों की चुनी हुई सरकारों की विश्वसनीयता जनता के बीच कायम हो। इसके लिए उन्हें तात्कालिक राजनैतिक लाभ का मोह छोड़कर व्यापक जनहित की नीतियों पर पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा। यदि जनता का भरोसा आप पर है तो वह खुद इन भाड़े के सिपाहियों का सामना कर लेगी। जिस जनता ने अंग्रेजी राज खत्म किया, वह इस देश की ही जनता तो थी।
ललित सुरजन
प्रधान संपादक, देशबंधु
ये जितनी ज्यादा हिंसा फैलाएंगे, उतनी ही आम जनता के बीच असुरक्षा की भावना बढ़ेगी। उतना ही चुनी हुई सरकार और प्रशासन पर से विश्वास उठेगा। उतना ही बस्तर को पुलिस के बजाय सेना के हवाले करने का विचार जोर पकड़ेगा। ध्यान रहे कि ऐसी मांग उठी तो आदिवासी की भूमिका मूकदर्शक की ही होगी। आज भी वह कहां कुछ कह पा रहा है! वह तो अपने घर से बेदखल है और विचारों की दुनिया से विस्थापित। उसके हित-अहित के सारे निर्णय, बहुत दूर बैठकर लिए जा रहे हैं। अगर इस माहौल में कोई जनतांत्रिक विमर्श और शांति स्थापना की बात करता है तो उसके लिए जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। कुल मिलाकर ये कथित माओवादी ऐसा वातावरण बना देना चाहते हैं कि विवेक, संयम, सोच जैसे शब्द बेमानी हो जाएं। इससे किसका हित होगा, यह समझना कठिन लेकिन जरूरी है।
ध्यान दीजिए कि आज भारत की आबादी एक अरब से ज्यादा है। यद्यपि न्यायसंगत वितरण व आर्थिक असमानता का लक्ष्य अभी बहुत दूर है, फिर भी पहले के मुकाबले स्थितियां बेहतर दिखाई देती हैं। आजादी के समय 33 करोड़ आबादी थी। आज लगभग उतनी ही बड़ी संख्या उन भारतीयों की है जो विश्व बाजार में उपभोक्ता के रूप में गिने जा रहे हैं। एक तरफ इनके लिए मायाजाल बिछाया जा रहा है तो दूसरी तरफ विश्व में बढ़ते उपभोग के कारण तीसरी दुनिया के नैसर्गिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय घरानों की गिध्द दृष्टि लगी हुई है। यह मात्र संयोग नहीं है कि जिन इलाकों में नक्सलियों ने अपने पैर जमाए हैं, वहीं ये सारे संसाधन हैं।
इन दस-बीस सालों में नक्सलियों या माओवादियों ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, जिससे नैसर्गिक संसाधनों पर मूल निवासियों का प्रथम दावा पुख्ता हुआ हो। ऐसे में यही समझ आता है कि बस्तर हो या कोई अन्य अंचल, ये हत्यारे दस्ते राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय कॉरपोरेट घरानों के इशारों पर ही काम कर रहे हैं। कहना होगा कि देश के कुछ राजनैतिक दलों में भी ऐसे लोग हैं जो उनके ही इंगित पर चल रहे हैं। दूसरे शब्दों में बैलेट हो या बुलेट-सारा खेल परदे के पीछे से संचालित हो रहा है और सूत्रधार दिखाई नहीं देता। इसीलिए हिंसक दुर्घटनाओं की जितनी भी निंदा या भर्त्सना की जाए, उनको कोई फर्क नहीं पड़ता।
इस दुष्चक्र से बाहर निकलने का एक ही उपाय है कि केंद्र व प्रदेशों की चुनी हुई सरकारों की विश्वसनीयता जनता के बीच कायम हो। इसके लिए उन्हें तात्कालिक राजनैतिक लाभ का मोह छोड़कर व्यापक जनहित की नीतियों पर पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा। यदि जनता का भरोसा आप पर है तो वह खुद इन भाड़े के सिपाहियों का सामना कर लेगी। जिस जनता ने अंग्रेजी राज खत्म किया, वह इस देश की ही जनता तो थी।
ललित सुरजन
प्रधान संपादक, देशबंधु
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