Saturday, May 22, 2010

नक्सली तांडव कब तक?

मुजफ्फरपुर-नरकटियागंज रेलखंड पर बुधवार (19 मई, 2010) की देर रात नक्सलियों ने ट्रैक उड़ा दिया, जिससे बरौनी से गोंडा जा रही पेट्रोलियम से लदी मालगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। ये पदार्थ अत्यधिक ज्वलनशील होते हैं इसलिए इस घटना के बाद मालगाड़ी के पेट्रोलियम टैंकरों में आग लग गई। 14 डिब्बे राख हो गए। पूर्व मध्य रेलवे के इस खंड में यह अब तक की सबसे बड़ी उग्रवादी वारदात थी। इस घटना में तीन करोड़ चार लाख रुपये के पेट्रोलियम तथा दो करोड़ रुपये की रेल परिसंपत्ति का नुकसान हुआ। हालांकि अब रेल परिचालन चालू हो गया है, लेकिन इससे पहले कई ट्रेनें रद होने और कुछ के रास्ता बदलने से सैकड़ों आम रेल यात्रियों को फजीहत उठानी पड़ी। इन साधारण लोगों की इस अवांछित परेशानी के लिए कौन जिम्मेदार है? किनकी नीतिगत, राजनीतिक या प्रशासनिक चूक के कारण भयमुक्त वातावरण में जीने के मूल लोकतांत्रिक अधिकार से जनता को लगातार वंचित किया जा रहा है? चंद घंटों में देश की पांच करोड़ रुपये की जो संपत्ति नष्ट कर दी गई, उसके लिए किसको सजा दी जानी चाहिए?

दुभा‌र्ग्यवश, लोकतंत्र की मलाई काटने वाले कुछ प्रमुख राजनीतिक दल देश की संसदीय व्यवस्था के लिए भस्मासुर बनते नक्सलवाद पर अपनी दो दशक पुरानी राय से काम चला रहे हैं। एक घिसा-पिटा तर्क दिया जाता है कि विकास के जरिये नक्सल समस्या का समाधान किया जा सकता है। उनके वैचारिक वकील भले विकास के अभाव को आगे कर उग्रवादी हिंसा का समर्थन करें, लेकिन नक्सली वास्तव में विकास विरोधी हो चुके हैं। उनके कारण नक्सल प्रभावित सिर्फ मगध प्रमंडल में ही करीब 250 योजनाएं अधर में हैं। हिंसा के भय से निर्माण बंद कर ठेकेदार फरार है। हकीकत यह है कि उग्रवादी विकास होने ही नहीं देना चाहते। यदि विकास हो गया तो उनके हाथ से भारतीय गणराज्य के विरुद्ध छद्म युद्ध छेड़ने का बहाना छिन जाएगा। आये दिन जिस निर्ममता से सुरक्षा बलों पर हमले हो रहे हैं, उससे साफ है कि बात वर्तमान शासन प्रणाली और संविधान के दायरे में रह कर गरीबी और विषमता दूर करने की नहीं रह गई है। लक्ष्य दिल्ली फतह है। घटनाओं की प्रकृति और आवृत्ति का संकेत यह है कि इनका वैचारिक व आपरेशनल रिमोट कंट्रोल सीमा पार की भारत-विरोधी शक्तियों के पास है। यदि राजनीतिक पार्टियां बल प्रयोग समेत सभी उपायों से नक्सल समस्या के कालबद्ध समाधान पर आमसहमति बनाने में ज्यादा देर करेंगे, तो आधी सदी बाद वे शायद इतिहास की किताब में मिलेंगे।

संपादकीय, जागरण, बिहार, २१ मई, 2010

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