प्रभाकर चौबे,
साहित्यकार, पत्रकार, ट्रेड युनियन लीडर
रायपुर
छत्तीसगढ़ में माओवादी ज्यादा सक्रिय हैं इसलिए यहां तथा इन घटनाओं को लेकर देश भर में ज्यादा चर्चा हो रही है। माओवादी वर्तमान बुर्जुआ लोकतंत्र को खारिज करते हैं और इसकी जगह जनवाद लाना चाहते हैं। जबकि लोकतंत्रवादी इस लोकतंत्र को कायम रखना चाहते हैं। मतलब यह लड़ाई लोकतंत्र को बचाए रखने वाली ताकत और इसे खतम कर देने के लिए कटिबध्द ताकत के बीच है। इसका यह भी अर्थ है कि यह राजनीतिक लड़ाई है। एक तरफ लोकतंत्रवादी हैं और दूसरी तरफ जनवादवादी। वामदल भी जनवाद चाहते हैं, लेकिन वे लोकतंत्र की संसदीय धारा में हैं, इसलिए वे संसदीय प्रणाली के माध्यम से इस लोकतंत्र को जनवाद में तब्दील करना चाहते हैं। उनका सशस्त्र क्रांति पर भरोसा नहीं है। वे जनता को जागृत कर अपने पक्ष में कर इस तंत्र को बदलने में विश्वास करते हैं। माओवादी इसलिए लोकतंत्रवादियों और वाम जनवादियों दोनों को नकार रहे हैं। लोकतंत्रवादी जिसमें वाम दल भी हैं, वैलेट (वोट) के द्वारा परिवर्तन सोचते हैं जबकि माओवादी बुलेट से क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं। इनके बीच बुध्दिजीवी कहां खड़े हैं। बुध्दिजीवी जो लोकतंत्र को बचाने की जा रही सत्ता की हिंसा और लोकतंत्र बदलने के लिए की जा रही माओवादी हिंसा, दोनों से दु:खी होते हैं, वे शांति चाहते हैं। वे दोनों से ही हिंसा त्यागने का आह्वान कर रहे हैं। ऐसे बुध्दिजीवी किसी के पक्षधर नहीं हैं-वे सरकार के पक्षधर नहीं हैं, वे माओवादियों और माओवाद के पक्षधर नहीं हैं। वे शांति के पक्षधर हैं। वे बुध्दिजीवी हैं सोचते हैं, इसलिए दोनों पक्षों से कहते हैं कि हिंसा छोड़ो और आपस में बात शुरू करो। वे बुध्दिजीवी हैं इसलिए बुध्दि की ही बात करेंगे, समझाएंगे, लड़ाका तो हैं नहीं कि तोप लेकर दोनों पक्षों को शांत करा दें। जहां तक बंदूक से लड़ने का सवाल है, सरकार ज्यादा ताकतवर होती है। उसकी हिंसा सांगठनिक होती है, इसलिए सरकार से वे पहले हिंसा बंद करने का आग्रह करते हैं और बातचीत का रास्ता तलाशने का तरीका ढूंढने को कहते हैं। आज तक किसी भी बुध्दिजीवीने किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं किया, हिंसा को जायज नहीं ठहराया। बुध्दिजीवी भी वर्तमान शोषणतंत्र को समाप्त होते देखना चाहते हैं, लेकिन वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऐसी सत्ता चाहते हैं जो शोषणविहीन हो। आज राजनीतिक छलछंद से बुध्दिजीवी परेशान हैं, आहत हैं, लेकिन वे लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, इसलिए मानते हैं कि जनता में लोकतांत्रिक चेतना गहरी होगी तो वह खुद इसे बदलेगी। दिक्कत यह है कि जब देश के बुध्दिजीवी यह आग्रह करते हैं कि हिंसा का परित्याग कर माओवादियों से चर्चा की जाए तो इन बुध्दिजीवियों को माओवादी समर्थक मान लिया जाता है। उन्हें वापस जाने को कहा जाता है। उनके खिलाफ प्रदर्शन किया जाता है। उनके वाहनों की हवा निकाल दी जाती है। मतलब उनकी बात सुने बगैर उन्हें दंडित कर दिया जाता है। बुध्दिजीवी राजनीति में नहीं हैं वे तटस्थ हैं और न्याय की बात करते हैं। अगर उन्हें सुना ही न जाए और उनके खिलाफ निर्णय दे दिया जाए तो देश में बौध्दिक संवाद ही बंद हो जाएगा। देश में केवल राजनीति का एजेंडा ही चलेगा। होना यह चाहिए कि उन्हें सभा करने दें, उनकी बातें धैर्यपूर्वक सुनी जाएं और उनसे सवाल किया जाएं। बौध्दिक विमर्श को लठैत विमर्श बनाने से देश में बाहुबल ही चलेगा। लोकतंत्र में यह क्यों हो। बुध्दिजीवी न तो चुनाव लड़ रहे न हथियार उठाकर सरकार के खिलाफ खड़े हैं। वे किसी मसले पर अपनी राय दे रहे हैं। उस राय को बौध्दिकता से खारिज करें या स्वीकार करें। महाभारत में वेद व्यास किसी के तरफ नहीं थे। न पांडवों की तरफ न कौरवों की तरफ, वे शांति चाहते थे। उन्हें पीटकर चुप करा दिया गया होता तो इतना महान ग्रंथ, इतने विचारों से भरा विमर्श नहीं आया होता। यह कहना आसान है कि वातानुकूलित कमराें में बैठकर माओवादियों से चर्चा की बातें करते हैं बुध्दिजीवी। यह आम मुहावरा-सा बन गया है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि आदिवासी अंचल के लिए आया दलिया, कम्बल, दूध आदि को खुले बाजार में बिकते इन बुध्दिजीवियों ने भी देखा है। इन्होंने जंगल कटते, आदिवासियों का हर तरह से शोषण होते देखा है। अरबों रुपए विकास के नाम आए और कहां गए, यह भी देखा है। सब देख रहे हैं, बुध्दिजीवियों को भी दिखता रहा है। बुध्दिजीवी चाहते हैं कि यह बंद हो। लेकिन वे यह भी चाहते हैं कि हिंसा से नहीं, लोकतांत्रिक तरीके से सब बंद हो। सरकार के खिलाफ जनता को उठ खड़ा होने को लोकतांत्रिक तरीके से तैयार किया जाए। इसके लिए अगर वे सरकार से हिंसा छोड़ बातचीत का रास्ता अख्तियार करने कहते हैं तो क्या वे माओवादी समर्थक हो गए। जब पुलिस जवान, सी.आर.पी.एफ. के जवान माओवादियों के साथ लड़ते हुए मारे जाते हैं तो हर नागरिक का दिल दहल जाता है। पीड़ा होती है। गुस्सा आता है। एक भी ऐसा नहीं है जो इसे अच्छा कहे। सब इसकी निंदा करते हैं और बुध्दिजीवी भी करते हैं। इसलिए वे शांति स्थापना कासुझाव देते हैं। आज राजनीतिक व्यवस्था तथा सरकारों पर भरोसा उठ गया है। सरकारें विश्वसनीयता खो रही हैं और केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी अपने हाल के बयान में कहा है कि माओवादी प्रभावित राज्यों में बड़ी समस्या प्रभावी सरकार की कमी है। लोगों ने सरकार से खुद ही दूरी बना रखी है। उन्होंने यह भी कहा कि यह हमारे लिए चेतावनी है। हमें सवाल करना चाहिए कि आखिर भारत के लोगों, देश की सरकार और राज्यों की सरकारों के बीच इतना अविश्वास क्यों है। बुध्दिजीवी न औद्योगीकरण का विरोधी है, न विकास का। बुध्दिजीवी समान विकास चाहते हैं। बुध्दिजीवी लोकतांत्रिक पर अटूट श्रध्दा रखते हैं। हिंसा के दौर में बुध्दिजीवी तटस्थ नहीं रह सकते-वे हर तरह की हिंसा का विरोध करते हैं। तर्कपूर्ण लिखते, बोलते हैं। बुध्दिजीवी सरकार की आर्थिक विकास की नीतियों को खारिज करते हैं, इसे जन पक्षधर देखना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए वह हथियार के उपयोग को भी खारिज करते हैं, वे लोकतंत्र में आई खराबियों में लोकतंत्र के औजारों से ही दुरुस्त करने पर विश्वास करते हैं। माओवादियों से चर्चा क्या होगी-यह दो तरह के तौर-तरीकों के बीच संघर्ष है। यह कोई वेतनवृध्दि या महंगाई दर में वृध्दि की लड़ाई नहीं है। इसलिए सरकार अपनी विकास की अवधारणा व नीतियां तथा कार्यक्रम को जनपक्षधर बनाए तो माओवादी समस्या शायद हल हो जाए। देश के बुध्दिजीवी लगातार लोकतंत्र के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहे हैं और आदिवासी, गरीब किसान, मध्यवर्ग की परेशानियों को रेखांकित कर रहे हैं। बुध्दिजीवी न दबाव में काम करते न लालच में पड़कर लिखते हैं। वे विवेक की बातें कह रहे हैं। वे सत्ता, प्रतिष्ठान तथा इस हजारों छिद्रवाली राजनीति के समर्थक भी नहीं हो सकते, उसे ढंकने का काम राजनीति में जो हैं, वे कर रहे हैं।
साहित्यकार, पत्रकार, ट्रेड युनियन लीडर
रायपुर
छत्तीसगढ़ में माओवादी ज्यादा सक्रिय हैं इसलिए यहां तथा इन घटनाओं को लेकर देश भर में ज्यादा चर्चा हो रही है। माओवादी वर्तमान बुर्जुआ लोकतंत्र को खारिज करते हैं और इसकी जगह जनवाद लाना चाहते हैं। जबकि लोकतंत्रवादी इस लोकतंत्र को कायम रखना चाहते हैं। मतलब यह लड़ाई लोकतंत्र को बचाए रखने वाली ताकत और इसे खतम कर देने के लिए कटिबध्द ताकत के बीच है। इसका यह भी अर्थ है कि यह राजनीतिक लड़ाई है। एक तरफ लोकतंत्रवादी हैं और दूसरी तरफ जनवादवादी। वामदल भी जनवाद चाहते हैं, लेकिन वे लोकतंत्र की संसदीय धारा में हैं, इसलिए वे संसदीय प्रणाली के माध्यम से इस लोकतंत्र को जनवाद में तब्दील करना चाहते हैं। उनका सशस्त्र क्रांति पर भरोसा नहीं है। वे जनता को जागृत कर अपने पक्ष में कर इस तंत्र को बदलने में विश्वास करते हैं। माओवादी इसलिए लोकतंत्रवादियों और वाम जनवादियों दोनों को नकार रहे हैं। लोकतंत्रवादी जिसमें वाम दल भी हैं, वैलेट (वोट) के द्वारा परिवर्तन सोचते हैं जबकि माओवादी बुलेट से क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं। इनके बीच बुध्दिजीवी कहां खड़े हैं। बुध्दिजीवी जो लोकतंत्र को बचाने की जा रही सत्ता की हिंसा और लोकतंत्र बदलने के लिए की जा रही माओवादी हिंसा, दोनों से दु:खी होते हैं, वे शांति चाहते हैं। वे दोनों से ही हिंसा त्यागने का आह्वान कर रहे हैं। ऐसे बुध्दिजीवी किसी के पक्षधर नहीं हैं-वे सरकार के पक्षधर नहीं हैं, वे माओवादियों और माओवाद के पक्षधर नहीं हैं। वे शांति के पक्षधर हैं। वे बुध्दिजीवी हैं सोचते हैं, इसलिए दोनों पक्षों से कहते हैं कि हिंसा छोड़ो और आपस में बात शुरू करो। वे बुध्दिजीवी हैं इसलिए बुध्दि की ही बात करेंगे, समझाएंगे, लड़ाका तो हैं नहीं कि तोप लेकर दोनों पक्षों को शांत करा दें। जहां तक बंदूक से लड़ने का सवाल है, सरकार ज्यादा ताकतवर होती है। उसकी हिंसा सांगठनिक होती है, इसलिए सरकार से वे पहले हिंसा बंद करने का आग्रह करते हैं और बातचीत का रास्ता तलाशने का तरीका ढूंढने को कहते हैं। आज तक किसी भी बुध्दिजीवीने किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं किया, हिंसा को जायज नहीं ठहराया। बुध्दिजीवी भी वर्तमान शोषणतंत्र को समाप्त होते देखना चाहते हैं, लेकिन वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऐसी सत्ता चाहते हैं जो शोषणविहीन हो। आज राजनीतिक छलछंद से बुध्दिजीवी परेशान हैं, आहत हैं, लेकिन वे लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, इसलिए मानते हैं कि जनता में लोकतांत्रिक चेतना गहरी होगी तो वह खुद इसे बदलेगी। दिक्कत यह है कि जब देश के बुध्दिजीवी यह आग्रह करते हैं कि हिंसा का परित्याग कर माओवादियों से चर्चा की जाए तो इन बुध्दिजीवियों को माओवादी समर्थक मान लिया जाता है। उन्हें वापस जाने को कहा जाता है। उनके खिलाफ प्रदर्शन किया जाता है। उनके वाहनों की हवा निकाल दी जाती है। मतलब उनकी बात सुने बगैर उन्हें दंडित कर दिया जाता है। बुध्दिजीवी राजनीति में नहीं हैं वे तटस्थ हैं और न्याय की बात करते हैं। अगर उन्हें सुना ही न जाए और उनके खिलाफ निर्णय दे दिया जाए तो देश में बौध्दिक संवाद ही बंद हो जाएगा। देश में केवल राजनीति का एजेंडा ही चलेगा। होना यह चाहिए कि उन्हें सभा करने दें, उनकी बातें धैर्यपूर्वक सुनी जाएं और उनसे सवाल किया जाएं। बौध्दिक विमर्श को लठैत विमर्श बनाने से देश में बाहुबल ही चलेगा। लोकतंत्र में यह क्यों हो। बुध्दिजीवी न तो चुनाव लड़ रहे न हथियार उठाकर सरकार के खिलाफ खड़े हैं। वे किसी मसले पर अपनी राय दे रहे हैं। उस राय को बौध्दिकता से खारिज करें या स्वीकार करें। महाभारत में वेद व्यास किसी के तरफ नहीं थे। न पांडवों की तरफ न कौरवों की तरफ, वे शांति चाहते थे। उन्हें पीटकर चुप करा दिया गया होता तो इतना महान ग्रंथ, इतने विचारों से भरा विमर्श नहीं आया होता। यह कहना आसान है कि वातानुकूलित कमराें में बैठकर माओवादियों से चर्चा की बातें करते हैं बुध्दिजीवी। यह आम मुहावरा-सा बन गया है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि आदिवासी अंचल के लिए आया दलिया, कम्बल, दूध आदि को खुले बाजार में बिकते इन बुध्दिजीवियों ने भी देखा है। इन्होंने जंगल कटते, आदिवासियों का हर तरह से शोषण होते देखा है। अरबों रुपए विकास के नाम आए और कहां गए, यह भी देखा है। सब देख रहे हैं, बुध्दिजीवियों को भी दिखता रहा है। बुध्दिजीवी चाहते हैं कि यह बंद हो। लेकिन वे यह भी चाहते हैं कि हिंसा से नहीं, लोकतांत्रिक तरीके से सब बंद हो। सरकार के खिलाफ जनता को उठ खड़ा होने को लोकतांत्रिक तरीके से तैयार किया जाए। इसके लिए अगर वे सरकार से हिंसा छोड़ बातचीत का रास्ता अख्तियार करने कहते हैं तो क्या वे माओवादी समर्थक हो गए। जब पुलिस जवान, सी.आर.पी.एफ. के जवान माओवादियों के साथ लड़ते हुए मारे जाते हैं तो हर नागरिक का दिल दहल जाता है। पीड़ा होती है। गुस्सा आता है। एक भी ऐसा नहीं है जो इसे अच्छा कहे। सब इसकी निंदा करते हैं और बुध्दिजीवी भी करते हैं। इसलिए वे शांति स्थापना कासुझाव देते हैं। आज राजनीतिक व्यवस्था तथा सरकारों पर भरोसा उठ गया है। सरकारें विश्वसनीयता खो रही हैं और केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी अपने हाल के बयान में कहा है कि माओवादी प्रभावित राज्यों में बड़ी समस्या प्रभावी सरकार की कमी है। लोगों ने सरकार से खुद ही दूरी बना रखी है। उन्होंने यह भी कहा कि यह हमारे लिए चेतावनी है। हमें सवाल करना चाहिए कि आखिर भारत के लोगों, देश की सरकार और राज्यों की सरकारों के बीच इतना अविश्वास क्यों है। बुध्दिजीवी न औद्योगीकरण का विरोधी है, न विकास का। बुध्दिजीवी समान विकास चाहते हैं। बुध्दिजीवी लोकतांत्रिक पर अटूट श्रध्दा रखते हैं। हिंसा के दौर में बुध्दिजीवी तटस्थ नहीं रह सकते-वे हर तरह की हिंसा का विरोध करते हैं। तर्कपूर्ण लिखते, बोलते हैं। बुध्दिजीवी सरकार की आर्थिक विकास की नीतियों को खारिज करते हैं, इसे जन पक्षधर देखना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए वह हथियार के उपयोग को भी खारिज करते हैं, वे लोकतंत्र में आई खराबियों में लोकतंत्र के औजारों से ही दुरुस्त करने पर विश्वास करते हैं। माओवादियों से चर्चा क्या होगी-यह दो तरह के तौर-तरीकों के बीच संघर्ष है। यह कोई वेतनवृध्दि या महंगाई दर में वृध्दि की लड़ाई नहीं है। इसलिए सरकार अपनी विकास की अवधारणा व नीतियां तथा कार्यक्रम को जनपक्षधर बनाए तो माओवादी समस्या शायद हल हो जाए। देश के बुध्दिजीवी लगातार लोकतंत्र के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहे हैं और आदिवासी, गरीब किसान, मध्यवर्ग की परेशानियों को रेखांकित कर रहे हैं। बुध्दिजीवी न दबाव में काम करते न लालच में पड़कर लिखते हैं। वे विवेक की बातें कह रहे हैं। वे सत्ता, प्रतिष्ठान तथा इस हजारों छिद्रवाली राजनीति के समर्थक भी नहीं हो सकते, उसे ढंकने का काम राजनीति में जो हैं, वे कर रहे हैं।
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