सुनील कुमार
संपादकीय, दैनिक छत्तीसगढ़, 19 मई, 2010
कल जिन लोगों ने टीवी पर भाजपा के प्रवक्ता और नेता अरूण जेटली की प्रेस कांफ्रेस देखी-सुनी हो उन्हें भाजपा के ये तर्क तो सही लगेंगे कि नक्सल मोर्चे पर आज भाजपा तो यूपीए के साथ है लेकिन खुद यूपीए के भीतर बिखराव है। जेटली ने यह बात सही कही कि लोकतंत्र में सरकार के बाहर के नेता सरकार के किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं होते और कांगे्रस महासचिव दिग्विजय सिंह उसी दर्जे के नेता हैं इसलिए जब वे चिदंबरम के खिलाफ जाकर तरह-तरह की बातें कह रहे हैं तो प्रधानमंत्री को यह खुलासा करना चाहिए कि उनके गठबंधन और उनकी पार्टी की नक्सल-नीति क्या है? कल जब एक तरफ चिदंबरम का मीडिया के साथ बातचीत का समाचार छपा कि वे नक्सल मोर्चे पर और अधिक सहमति-अनुमति के लिए प्रधानमंत्री से बात करेंगे और उन्होंने वायुसेना के उपयोग के बारे में अपना झुकाव उजागर किया तो उसी के जवाब में उत्तरप्रदेश के दौर पर दिग्विजय सिंह ने खुलकर इसके खिलाफ कहा और यहां तक कहा कि ऐसी बात करने वालों को बस्तर के दंतेवाड़ा जैसे इलाकों की जमीनी हकीकत नहीं मालूम है। इसी के आसपास दिग्विजय ने सलवा जुडूम के खिलाफ एक सख्त बयान दिया और छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को इसके लिए कोसा। कम से कम छत्तीसगढ़ की जनता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि रमन सरकार के पिछले पांच बरसों के कार्यकाल में कांगे्रस विधायक दल के नेता महेंद्र कर्मा सलवा जुडूम के सबसे बड़े नेता थे और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को छोडक़र लगभग सभी कांगे्रस नेता या तो सलवा जुडूम के साथ थे या सलवा जुडूम पर चुप थे। इन बरसों में हमने लगातार कांगे्रस के इस आंतरिक विरोधाभासा पर लिखा था कि इस पार्टी को साफ करना चाहिए कि सलवा जुडूम पर इसकी नीति क्या है। अब जाकर अगर दिग्विजय सिंह महेंद्र कर्मा के इस मोर्चे के खिलाफ कहते हैं तो फिर अपनी ही पार्टी के पिछले पांच बरसों के बारे में उनका क्या कहना है? छत्तीसगढ़ में कांगे्रस और भाजपा-सरकार की आधी-आधी भागीदारी वाले सलवा जुडूम के बारे में क्या दिग्विजय को कर्मा का वह छपा हुआ बयान याद नहीं है जिसमें उन्होंने इस अभियान का समर्थन करने के लिए पार्टी तक छोड़ देने की बात कही थी?
अरूण जेटली और भाजपा की यह बात पूरी तरह सच है कि नक्सल मोर्चे पर रमन सरकार तो पूरी तरह चिदंबरम-मनमोहन सिंह के साथ है, भाजपा पूरे देश में केंद्र सरकार के साथ है और दूसरी तरफ गृह मंत्री चिदंबरम अपने गठबंधन, अपनी पार्टी और अपनी सरकार के भीतर बंधे हुए हाथों से काम कर रहे हैं। नक्सल हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा बताने वाले प्रधानमंत्री यह जरूर कहते हैं कि एक मंत्री दूसरे मंत्री के विभाग के बारे में बयानबाजी न करे, यह भी कहते हैं कि नक्सल मोर्चे के बारे में अकेला गृह मंत्रालय बयान देगा लेकिन अपनी पार्टी पर उनका कोई काबू नहीं है। छत्तीसगढ़ में कांगे्रस के छोटे-छोटे नेता यह बयान देकर अपनी पार्टी को हंसी का सामान बना रहे हैं कि इस राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए। केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम ने आज तक नक्सल मोर्चे पर छत्तीसगढ़ सरकार को न तो नाकामयाब कहा और न ही केंद्र की किसी और दखल की तरफ इशारा किया। जब राज्य और केंद्र पूरे तालमेल से देश के इस सबसे बड़े खतरे से जूझ रहे हैं तब देश में घूम-घूमकर दिग्विजय केंद्र और इस राज्य दोनों के खिलाफ सीधे-सीधे या गोलमोल शब्दों में बयान दे रहे हैं और मानो उसी को दिशा-निर्देश मानकर छत्तीसगढ़ के छोटे-छोटे कांगे्रस नेता राष्ट्रपति शासन की मांग कर रहे हैं।
यह कांगे्रस के लिए एक बहुत ही बेकाबू हालत है और यह उस पार्टी में तालमेल के संकट का सुबूत भी है। इस पार्टी ने पिछले कुछ ही महीनों के भीतर अपने बड़बोले नेताओं की बयानबाजी की कई मिसालें देखी हैं। शशि थरूर को जाते देखा है और जयराम रमेश को जाने की कगार से लौटते देखा है। यह सिलसिला अपनी सरकार और अपनी पार्टी के भीतर ही खत्म हो जाता तो भी ठीक रहता, लेकिन दिग्विजय की छोड़ी गई विरासत का जो नक्सल बोझ छत्तीसगढ़ ढो और झेल रहा है उसकी आत्मग्लानि से इतनी आसानी से मुक्त होकर अविभाजित मध्यप्रदेश के इस आखिरी मुख्यमंत्री के बयान देखते ही बनते हैं। बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों की जमीनी हकीकत की इतनी ही समझ अगर दिग्विजय सिंह को होती तो अविभाजित मध्यप्रदेश के इस छत्तीसगढ़ नाम के हिस्से के साथ भोपाल से चालीस बरस तक बेईमानी नहीं हुई होती। यह दिग्विजय का ही कार्यकाल था जब मध्यप्रदेश के बहुत से अभियानों में छत्तीसगढ़ का छ भी नहीं दिखता था और बाकी मध्यप्रदेश में कमलनाथ के एक संसदीय क्षेत्र में पूरे छत्तीसगढ़ के मुकाबले अधिक सिंचाई पंप कनेक्शन दिए गए थे। आज दिग्विजय सिंह जिस विकास पर जोर दे रहे हैं और नक्सलियों पर कार्रवाई के बजाय विकास को प्राथमिकता देने की बात कह रहे हैं वह विकास उनके पूरे कार्यकाल में बस्तर में पांव क्यों नहीं धर पाया? उस वक्त सबसे अधिक भ्रष्ट शासन तंत्र के चलते अगर किसी के पांव बस्तर में पड़े तो वे विकास के नहीं थे नक्सलियों के थे। लेकिन दिग्विजय सिंह पर अधिक चर्चा आज का मकसद नहीं है, आज हम कांगे्रस पार्टी को यह सुझाना चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ रात-दिन अपनी जमीन पर लहू बिखरते देख रहा है और देश के इस सबसे बड़े खतरे से देश भर में सबसे कड़ी लड़ाई भी यही राज्य लड़ रहा है। ऐसे में अगर कांगे्रस पार्टी का एक बड़ा पदाधिकारी छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत को समझे बिना अपनी ही पार्टी के केंद्रीय गृह मंत्री को छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत न समझने वाला करार दे रहा है और लगातार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पर इस अंदाज में हमले कर रहा है कि मानो नक्सलियों को न्यौता रमन-राज में दिया गया था, तो इससे दिग्विजय सिंह इस देश में केंद्र-राज्य संबंधों को भी तबाह कर रहे हैं और छत्तीसगढ़ की आम जनता के बीच कांगे्रस पार्टी को उसी तरह तबाह कर रहे हैं जिस तरह उन्होंने कुछ दूसरे प्रदेशों में किया है। एक वक्त दिग्विजय अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ के भीतर सबसे लोकप्रिय कांगे्रस नेता थे लेकिन राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़ ने भोपाल से की गई बेईमानी के जो सुबूत देखे और जितनी तरक्की की उसके चलते अब दिग्विजय सिंह की छत्तीसगढ़ में कोई जमीन बची नहीं है, वे इस राज्य में कांगे्रस के किसी तरह के प्रभारी भी नहीं हैं लेकिन वे जिस तरह की बयानबाजी इस राज्य को लेकर कर रहे हैं उससे इस राज्य में कांगे्रस की ग्यारह में से एक लोकसभा सीट भी अगले चुनाव में बचेगी या नहीं यह अंदाज लगाना कुछ मुश्किल है। जिस छत्तीसगढ़ में कांगे्रस का गढ़ माना जाता था वह ढह क्यों गया यह देखना हो तो इस बयानबाजी को देखना होगा जिससे छत्तीसगढ़ के ही बहुत से कांगे्रस नेता असहमत हैं लेकिन वे चुप हैं कि दिग्विजय सिंह जैसे ताकतवर नेता के सामने कौन मुंह खोले। आने वाले चुनाव में जनता इस पर मुंह जरूर खोलेगी।
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