Wednesday, May 12, 2010

नक्सली हमला : अब बीजापुर

दंतेवाड़ा के जख्म की पीड़ा अभी कम नहींहुई कि नक्सलियों ने बीजापुर में एक और हमले में सात जवानों की हत्या कर नया घाव दे दिया। चाहे 76 लोगों की जान जाए या 7 लोगों की, हर जिंदगी कीमती है और हर एक की असामयिक मौत पर उतना ही दुख होता है। नक्सल प्रभावित इलाकों में डयूटी कर रहे जवानों के शहीद होने, क्षत-विक्षत शवों को ताबूत में उनके गृहनगर भेजने, शोक संदेश जारी करने, शहादत पर गर्व करने और मुआवजे के रूप में कुछ धनराशि या नौकरी देने का सिलसिला थम ही नहींरहा है। हर बार एक जैसी घटना, बस पात्र और स्थान बदलते जा रहे हैं। नायक जवान शहीद हो रहे हैं और खलनायक नक्सली फिर नया शिकार करने की साजिश रचने में लग रहे हैं।
नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर शुरू की गई इस हिंसक कहानी में अब विचार सिरे से गायब हैं और केवल खून-खराबे की ही बात है। जंगलों पर काबिज आततायी नक्सली, जंगलों से बेदखल किए गए आदिवासी और जंगलों में डयूटी निभाते सुरक्षा बलों व पुलिस के जवान, हिंसक खेल के नियम बस इन्हींपर लागू हो रहे हैं, जिसमें जरा सी चूक में कब-कौन मारा जाए, कहा नहींजा सकता। खेल केवल इनके बीच ही हो रहा है, प्रेक्षक और नियामक दूर बैठे गलत-सही की समीक्षा कर रहे हैं, एक-दूसरे की गलतियां निकालने में लगे हैं। 8 मई की इस घटना के बाद एक बार फिर घटना की जांच, कारणों की पड़ताल और चूक कहां हुई जैसी बातें सामने आएंगी। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर का वक्तव्य आ भी गया कि ऐसा लगता है कि सुरक्षा बलों ने उन हिदायतों की अनदेखी की है, जिसमें कहा गया है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में किसी भी गाड़ी पर सफर न किया जाए। चूक कहां हुई इसका खुलासा शायद जांच पूरी होने के बाद ही हो। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कुछ ऐसी ही असावधानी या निर्देशों का पालन न करने की बात दंतेवाड़ा की घटना के बाद भी कही गई थी। चूक होने के ये बयान काफी भ्रामक व उलझाने वाले हैं। सुरक्षा बल गश्त करने या जैसा कि इस घटना में हुआ रसद पहुंचाने एक इलाके से दूसरे इलाके गाड़ी से जाएंगे या पैदल जाएंगे। दोनों ही स्थितियों में हमलों के लिए वे आसान निशाना बन सकते हैं। और अगर हवाई मार्ग का उपयोग करें तो सूत्रों के मुताबिक नक्सलियों के पास हवा में वार करने वाले हथियार भी उपलब्ध हैं। दरअसल उनका तंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि सुरक्षा बल कब, कहां जाने वाले हैं, उनका अगला कदम क्या होगा, इसकी तमाम जानकारी नक्सलियों के पास रहती है और वे आसानी से अपनी साजिशों को अंजाम दे जाते हैं। इसके विपरीत सरकार का सुरक्षा तंत्र कमजोर ही कहा जा सकता है, क्योंकि उसे मजबूत करने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखनी चाहिए, वह फिलहाल बयानों में दिख रही है या एक-दूसरे पर आरोप लगाने में।
हिंसक खेल के प्रेक्षक यानी जनता, तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता व मानव अधिकारों के सच्चे पुरोधा नक्सल समस्या के समाधान में अब तक अपनी भूमिका समझ नहींपाए हैं या जिन्होंने समझी है वे उसकी व्याख्या नहींकर पाए हैं। छत्तीसगढ़ में शांति यात्रा के जरिए इस समस्या के निराकरण के लिए मानव अधिकारों की पैरवी करने वाले एक तबके ने पहल की थी। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से अच्छा है कुछ हरकत करते दिखना, किंतु नक्सल समस्या में राजनीतिक मुद्दे तलाशने वालों को समाज का यह जागरूक होना पसंद नहींआया, पुलिस प्रशासन भी शायद नहींचाहता कि बैलेट बनाम बुलेट के जुमले में कोई तीसरा शब्द जुड़े, लिहाजा इस तबके का विरोध हुआ और जनता का एक बड़ा हिस्सा समझ ही नहींपाया कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ते-लड़ते राजनीतिक दलों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच जो अघोषित लड़ाई छिड़ गई है, उसमें उसे किसका पक्ष लेना चाहिए। न राजनीतिक दल जनशिक्षण का कोई काम कर रहे हैं न मानवाधिकारों की बात करने वाले बुध्दिजीवी। सबके अपने निश्चित एजेंडे और कार्यक्षेत्र हैं। भ्रम के इस खाद-पानी से नक्सलियों को फलने-फूलने का पूरा अवसर मिल रहा है और उन स्वार्थी तत्वों को भी जो नक्सल प्रभावित इलाकों मेंदबी अकूत प्राकृतिक संपदा का बेरोकटोक दोहन कर रहे हैं, करना चाहते हैं।
संपादकीय, दैनिक देशबंधु, रायपुर, १० मई, 2010

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