आर के विज
१७ मई, २०१० को नक्सलियों द्वारा ३१ ग्रामीण आदिवासियों एवं जवानों की नृशंस हत्या कर क्षेत्र में भय का वातावरण कायम रखने का जो संदेश जनता को देने का घिनौना प्रयास किया है, उसे जनता कभी पूरा नहीं होने देगी। नक्सलियों के आतंक से पीड़ित जनता के चंद नुमाइंदे पुलिस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े क्या हो गए, नक्सलियों के हाथ-पाँव फूलने लगे। यह दौर २००५ में सलवाजुड़ूम के साथ चालू हुआ एवं अब इस आतंकवाद को नेस्तनाबूद करके ही दम लेगा।
आतंकवाद की पीड़ा सहने की भी एक हद है। यह हद जून २००५ में तब पार हो गई, जब निर्दोष जनता जो न केवल नक्सलियों की सीधी मार से दुखी थी, बल्कि उनके हाट-बाजार बंद करा देने एवं पूजा के स्थानों को क्षतिग्रस्त कर उनके सामाजिक जनजीवन एवं संस्कृति पर कुठाराघात करने से भी आहत थी। सलवाजुड़ूम की ऑंधी में भारी संख्या में कुछ नक्सलियों व उनके समर्थकों ने न केवल आत्मसमर्पण किया, बल्कि पुलिस का साथ देने का भी जोखिम भरा बीड़ा उठाया। भारत सरकार ने तत्काल १,५०० रुपए प्रतिमाह का मानदेय निर्धारित करते हुए राज्य सरकार के इस प्रस्ताव पर अपनी मोहर लगा दी। इन जाँबाज विशेष पुलिस अधिकारियों की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। ये वीर है, साहसी हैं एवं सही कहें तो कई मायनों में पुलिस के पथ-प्रदर्शक भी है, वरना इतनी कम राशि में भला कौन अपनी प्राणों की आहुति देने के लिए हर पल तैयार रहता है। बस्तर के ये वो वीर सपूत हैं, जिन्होंने गंगालूर-बीजापुर सड़क निर्माण करने का बीड़ा उठाया और अपनी आहुति दी । ये वो साहसी माटी पुत्र है, जिन्होंने अरपलमेटा की घटना के दौरान सीआरपीएफ के कुछ जवानों को मौत के मुँह से निकालने का साहस दिखाया। ऐसे साहसी मददगारों को सरकार ने अतिरिक्त सहायता देने के लिए न केवल ६५० रुपए प्रतिमाह अतिरिक्त राशि स्वीकृत की, बल्कि उन्हें पुलिस की भाँति विशेष वर्दी धारण करने का भी गौरव प्रदान किया। १७ मई की घटना में इन विशेष पुलिस अधिकारियों ने पुनः यह साबित कर दिया कि चाहे आम सभाओं एवं बैठकों के अनवरत दौर समाप्त हो गए हों, परंतु नक्सलियों से दो-दो हाथ करने जज्बे में कोई कमी नहीं आई है। यही कारण है कि इतनी बड़ी संख्या में शहादत देने के बावजूद भी न केवल इनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है, बल्कि पुलिस में भर्ती होने के आकर्षण में वृद्घि हुई है। सभ्य समाज चाहे उनके बस में सवार होने पर उँगलियाँ उठाता रहे, परंतु बस के विस्फोट होने के पश्चात इधर-उधर पड़े घायल विशेष पुलिस अधिकारियों ने जिस साहस का प्रदर्शन किया, उसका कोई समानांतर नहीं है। घायल एसपीओ के पास आटोमेटिक बंदूकें थीं, उन्होंने जल्दी ही अपने आप को संभाला और ए.के.४७ से फायर कर रहे नक्सलियों पर जवाबी हमला शुरू कर दिया। यही नहीं पीछे वाहनों से आने वाले अन्य सुरक्षाकर्मियों ने घायलों के आसपास घेरा बनाया, ताकि नक्सली नजदीक आकर शवों को क्षत-विक्षत न कर सकें एवं शहीदों के हथियार न लूट सकें। स्थिति पर नियंत्रण पाते ही एक जवान ने एक वाहन को रोका एवं घायलों को सुकमा ले जाने की गुहार लगाई।
ड्राइवर के न मानने पर एक एसपीओ से बना सिपाही खुद ही ड्राइवर की सीट पर जा बैठा एवं घायलों को लेकर सुकमा पहुँचकर उनकी जान बचाई। मौके पर नक्सलियों की कायराना हमले का जवाब देकर सूझबूझ से घायलों को सुरक्षित निकाल लेना किसी चुनौती से कम नहीं, परंतु एसपीओ की सूझबूझ तो देखिए, न तो कोई मौके से भागा, न ही, किसी ने पीठ दिखाई। ऐसे जज्बे वाले विशेष पुलिस अधिकारियों का जितना गुणगान किया जाए कम है। वीर गति को प्राप्त हुए १५ विशेष पुलिस अधिकारियों एवं जवानों का योगदान छत्तीसगढ़ की जनता के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।
(लेखक छग में पुलिस महानिरीक्षक हैं )
१७ मई, २०१० को नक्सलियों द्वारा ३१ ग्रामीण आदिवासियों एवं जवानों की नृशंस हत्या कर क्षेत्र में भय का वातावरण कायम रखने का जो संदेश जनता को देने का घिनौना प्रयास किया है, उसे जनता कभी पूरा नहीं होने देगी। नक्सलियों के आतंक से पीड़ित जनता के चंद नुमाइंदे पुलिस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े क्या हो गए, नक्सलियों के हाथ-पाँव फूलने लगे। यह दौर २००५ में सलवाजुड़ूम के साथ चालू हुआ एवं अब इस आतंकवाद को नेस्तनाबूद करके ही दम लेगा।
आतंकवाद की पीड़ा सहने की भी एक हद है। यह हद जून २००५ में तब पार हो गई, जब निर्दोष जनता जो न केवल नक्सलियों की सीधी मार से दुखी थी, बल्कि उनके हाट-बाजार बंद करा देने एवं पूजा के स्थानों को क्षतिग्रस्त कर उनके सामाजिक जनजीवन एवं संस्कृति पर कुठाराघात करने से भी आहत थी। सलवाजुड़ूम की ऑंधी में भारी संख्या में कुछ नक्सलियों व उनके समर्थकों ने न केवल आत्मसमर्पण किया, बल्कि पुलिस का साथ देने का भी जोखिम भरा बीड़ा उठाया। भारत सरकार ने तत्काल १,५०० रुपए प्रतिमाह का मानदेय निर्धारित करते हुए राज्य सरकार के इस प्रस्ताव पर अपनी मोहर लगा दी। इन जाँबाज विशेष पुलिस अधिकारियों की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। ये वीर है, साहसी हैं एवं सही कहें तो कई मायनों में पुलिस के पथ-प्रदर्शक भी है, वरना इतनी कम राशि में भला कौन अपनी प्राणों की आहुति देने के लिए हर पल तैयार रहता है। बस्तर के ये वो वीर सपूत हैं, जिन्होंने गंगालूर-बीजापुर सड़क निर्माण करने का बीड़ा उठाया और अपनी आहुति दी । ये वो साहसी माटी पुत्र है, जिन्होंने अरपलमेटा की घटना के दौरान सीआरपीएफ के कुछ जवानों को मौत के मुँह से निकालने का साहस दिखाया। ऐसे साहसी मददगारों को सरकार ने अतिरिक्त सहायता देने के लिए न केवल ६५० रुपए प्रतिमाह अतिरिक्त राशि स्वीकृत की, बल्कि उन्हें पुलिस की भाँति विशेष वर्दी धारण करने का भी गौरव प्रदान किया। १७ मई की घटना में इन विशेष पुलिस अधिकारियों ने पुनः यह साबित कर दिया कि चाहे आम सभाओं एवं बैठकों के अनवरत दौर समाप्त हो गए हों, परंतु नक्सलियों से दो-दो हाथ करने जज्बे में कोई कमी नहीं आई है। यही कारण है कि इतनी बड़ी संख्या में शहादत देने के बावजूद भी न केवल इनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है, बल्कि पुलिस में भर्ती होने के आकर्षण में वृद्घि हुई है। सभ्य समाज चाहे उनके बस में सवार होने पर उँगलियाँ उठाता रहे, परंतु बस के विस्फोट होने के पश्चात इधर-उधर पड़े घायल विशेष पुलिस अधिकारियों ने जिस साहस का प्रदर्शन किया, उसका कोई समानांतर नहीं है। घायल एसपीओ के पास आटोमेटिक बंदूकें थीं, उन्होंने जल्दी ही अपने आप को संभाला और ए.के.४७ से फायर कर रहे नक्सलियों पर जवाबी हमला शुरू कर दिया। यही नहीं पीछे वाहनों से आने वाले अन्य सुरक्षाकर्मियों ने घायलों के आसपास घेरा बनाया, ताकि नक्सली नजदीक आकर शवों को क्षत-विक्षत न कर सकें एवं शहीदों के हथियार न लूट सकें। स्थिति पर नियंत्रण पाते ही एक जवान ने एक वाहन को रोका एवं घायलों को सुकमा ले जाने की गुहार लगाई।
ड्राइवर के न मानने पर एक एसपीओ से बना सिपाही खुद ही ड्राइवर की सीट पर जा बैठा एवं घायलों को लेकर सुकमा पहुँचकर उनकी जान बचाई। मौके पर नक्सलियों की कायराना हमले का जवाब देकर सूझबूझ से घायलों को सुरक्षित निकाल लेना किसी चुनौती से कम नहीं, परंतु एसपीओ की सूझबूझ तो देखिए, न तो कोई मौके से भागा, न ही, किसी ने पीठ दिखाई। ऐसे जज्बे वाले विशेष पुलिस अधिकारियों का जितना गुणगान किया जाए कम है। वीर गति को प्राप्त हुए १५ विशेष पुलिस अधिकारियों एवं जवानों का योगदान छत्तीसगढ़ की जनता के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।
(लेखक छग में पुलिस महानिरीक्षक हैं )
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