Thursday, February 18, 2010

सिलदा नरसंहार के बाद


सिलदा (पश्चिम मिदनापुर, सोमवार, 15 जनवरी) नरसंहार औऱ उसके बाद


किशन जी !
बृहत्तर अर्थ में अपने ही परिवार के जवानों की हत्या कर आप जश्न मना रहे हैं। आपको जश्न मुबारक हो !

आप आन्ध्रप्रदेश के हैं । वे बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश के थे । वे ग़रीब, बेबस और ज़रूरतमंद परिवारों के थे । आपने जब उनकी हत्या की, तब वे भोजन बनाने की तैयारी कर रहे थे । इसीलिए उन्हें ख़ुद का बचाव करने का मौक़ा नहीं मिला । भोजन बनाते व़क्त मरकर वे एक सवाल आपके हवाले कर गए । एक सवाल जो अहम् है । भोजन के लिए ही तो तमाम लड़ाईयाँ लड़ी जाती है । वरना किसे शौक़ है कि घने जंगल में खेमा गाढ़कर बैठा रहे । उन नवयुवकों को सरकार रोटी कमाने का दूसरा कोई रास्ता सुझा नहीं सकी । तभी तो वे “इस्टर्न फ्रांटियर राइफल्स” में भरती हुए । वरना वे किसी और पेशे में होते ।


लेकिन किसी अन्य पेशे में होने से भी क्या वे ऐसी मौत नहीं मरते ? आपने मौत का जो जाल बिछाया है, उसके घेरे में तो ढेर सारे लोग आ चुके हैं । स्कूल में पढ़ानेवाले शिक्षक, कालेज में पढ़नेवाले विद्यार्थी, खेत-खलिहान में काम कर गुज़र बसर करते लोग, आम नागरिक । आपके हाथों मरकर परमगति को प्राप्त करने के लिए उनमें सिर्फ़ एक योग्यता होनी चाहिए । विचारधारा के मामले में वे आपसे सहमत न हों । भले ही वे भी किसी मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य क्यों न हों ? आपकी विचारधारा तो ख़ास है न, ख़ास और बिलकुल अलग । आपकी विचारधारा कहती है – बहस मत करो, जो मैं कहता हूँ, वही करो । वैसे, ऐसा ही फ़रमान हिटलर भी जारी करता था और आप माओवादी हैं । माओ ने अपने सिद्धांत को मार्क्स के सिद्धांत के अनुरूप और चीनी वास्तविकताओं के अनुसार ढाला था । आपने अपने सिद्धांत को हिटलर के सिद्धांत के अनुरूप और भारत की वास्तविकताओं के अनुसार ढ़ाल लिया है । जी हा, भारत की वास्तविकताएँ । जिन वास्तविकताओं के अंतर्गत, नवयुवक मजह दो वक़्त की रोटी की ख़ातिर जंगलों में मरने चले जाते हैं । सरकारें इतनी लचर हैं कि उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण देने के लिए भी उनके पास फ़ुर्सत नहीं है । मिले जूले रूप में नतीज़ा यही निकलता है कि वे आपके हाथों मौत के हवाले हो जाते हैं । आपके सिद्धांत को प्रामाणिकता मिल जाती है ।


मार्क्स ने कहा था – सब कुछ पर शक़ करो । लेकिन आप पर कौन शक़ करे । उस पर तो पाबंदी लगी है । भारत में पाबंदी तोड़कर लोग हर कुछ करने को अभ्यस्त हैं । वे जूलूस निकालते हैं, गिरफ्तारियाँ देते हैं । जेल भरो अभियान चलाते हैं । लेकिन आपकी लगाई पाबंदी को भला कौन तोड़े ? उसे मरना है क्या ? राज्यसत्ता किसी को मारने में भले ही हिचकती हो, लेकिन आप नहीं हिचकते ।

सड़ी हुई लाशों की महक से सराबोर माओवादी क्रांति का रथ आगे बढ़ रहा है, बढ़ता ही जा रहा है ।

विश्वजीत सेन
दिवंगत डॉ. ए. के. सेन का मकान
रामकृष्ण एवेन्यु, पटना - 800004

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